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17. मेरा आदर्श अध्यापक
विचार-बिंदु मेरे आदर्श अध्यापक परम स्नेही सहयोगी विषय विशेषज्ञ गंभीर और अनुशासनप्रिय सादगी, और सच्चाई।
मेरे आदर्श अध्यापक बचपन से अब तक मैं अनेक अध्यापकों संपर्क में आया हूँ। प्रायः सभी ने मुझे प्रभावित किया है। परंतु जब मैं अपने आदर्श अध्यापक की खोज करने निकलता हूँ तो मुझे श्री विजयेंद्र जैन का स्मरण हो आता है। परम स्नेही श्री विजयेंद्र जैन की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि वे सब विद्यार्थियों से मित्रवत स्नेह रखते थे। वे उनके जीवन
पूरी रुचि लिया करते थे। वे छात्र को अपने पास बुलाकर उसमें अद्भुत प्रेरणा भर दिया करते थे। सहयोगी - श्री विजयेंद्र जैन स्वभाव से ही सहयोगी थे। उनकी आदत थी कि वे छात्रों को भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जाने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे। आज युग में छात्रों के लिए इतना करने वाला अध्यापक ढूँढने से भी नहीं मिलता। उनके सभी छात्र उनके प्रशंसक हैं।
* विषय विशेषज्ञ श्री विजयेंद्र जैन वनस्पतिशास्त्र के अध्यापक थे। वे अपने विषय में पारंगत थे वे अपने लतापूर्वक पढ़ाया करते थे। उनका पढ़ाने का ढंग अत्यंत सरल तथा विनम्र था। वे बातचीत की शैली में समझाया करते थे। ॐ जन स्वयं बहुत अध्ययनशील थे। खाली समय में हम उन्हें अध्ययन करता हुआ ही देखते थे।
गंभीर और अनुशासनप्रिय - श्री जैन गंभीर और अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। वे कभी फालतू बातें नहीं किया करते थे। उनका एक एक शब्द तुला हुआ होता था। सभी छात्र उनके वचनों का सम्मान करते थे। जैसे वे खुद मितभाषी थे, वैसे ही वे छात्रों से अपेक्षा किया करते थे। वे अपने जीवन में अत्यंत अनुशासित थे। वे कक्षा में कभी देरी से नहीं आए। कभी बिना पढ़ाए कक्षा नहीं छोड़ी। सादगी, दृढ़ता और सच्चाई - श्री विजयेंद्र जैन सादगी, दृढ़ता और सच्चाई की मूर्ति थे। उनका पहनावा सीधा था बच्चे
उनकी सादगी पर मोहित थे। शायद ही हमारा ध्यान कभी उनके वस्त्रों पर गया हो। उनके मन में सच्चाई का वास था। उन्होंने
कभी नकल को प्रोत्साहन नहीं दिया। कितने ही छात्र उनके करीब थे, परंतु किसी ने उनके सामने नकल करने की हिम्मत नहीं की।
18. छात्र - अनुशासन
विचार-बिंदु अनुशासन का अर्थ और महत्त्व अनुशासन की प्रथम पाठशाला परिवार व्यक्तिगत और सामाजिक
जीवन के लिए अनुशासन आवश्यक अनुशासन एक महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य अनुशासन का अर्थ और महत्त्व-अनुशासन का अर्थ है-नियम के अनुसार चलना, नियंत्रण या व्यवस्था विद्यार्थी और
अनुशासन का परस्पर गहरा संबंध है। अनुशासन के बिना विद्या ग्रहण करने का कार्य नहीं किया जा सकता। अनुशासन की प्रथम पाठशाला परिवार - अनुशासन की पहली पाठशाला है- परिवार बच्चा अपने परिवार में जैसा देखता
है, वैसा ही आचरण करता है। जो माता-पिता अपने बच्चों को अनुशासन में देखना चाहते हैं, वे पहले स्वयं अनुशासन में रहते हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिए अनुशासन आवश्यक विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का होना अत्यंत आवश्यक है। विद्या-ग्रहण करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ सामने आती हैं। उनमें सबसे बड़ी बाधा है- अव्यवस्था। छात्र अपनी दिनचर्या को निश्चित व्यवस्था में नहीं ढाल पाते। कभी-कभी वे व्यवस्था बनाते भी हैं तो उसका पालन करते। अन्य आकर्षण, चलचित्र, दूरदर्शन के कार्यक्रम, खेल, मनोरंजन, गप्पें, आलस्य, कामचोरी आदि शत्रु उसे मार्ग से भटका देते हैं। इन शत्रुओं से लड़ने का एकमात्र उपाय है-कठोर अनुशासन। महात्मा गाँधी कहते थे- "अनुशासन अव्यवस्था के लिए वही काम करता है जो तूफान और बाढ़ के समय किला और जहाज।"
प्रकार की व्यवस्था नहीं दिखाई देती न अध्यापक कक्षा में पढ़ाने में रुचि लेते हैं, न अधिकारी अनुशासन को महत्त्व देते हैं।
आज दुर्भाग्य से शिक्षण संस्थाओं में अनुशासनहीनता का बोलबाला होता जा रहा है। अधिकतर सरकारी विद्यालयों में किसी
अनुशासन-एक महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य-वास्तव में अनुशासन में रहना एक स्वभाव है, एक आदत है। यह जीवन जीने का ढंग है। जिस प्रकार मनुष्य गंदगी में नहीं रह सकता, उसी भाँति सभ्य मनुष्य बिना अनुशासन के नहीं रह सकता। आज सभ्यता और असभ्यता की पहचान ही यही रह गई है-अनुशासन यही कारण है कि बड़े-बड़े विद्यालय अनुशासन को सर्वोच्च स्थान देते हैं विद्यार्थियों की वेशभूषा, बोलचाल नियमितता आदि का विशेष ध्यान रखते हैं। वे पुस्तकीय विद्या की बजाय सुशिक्षित व्यक्तित्व का सृजन करते हैं।
परिणामस्वरूप इनके कारण विद्या प्राप्ति का मूल लक्ष्य ही नष्ट होता जा रहा है।
अनुशासन-एक महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य-वास्तव में अनुशासन में रहना एक स्वभाव है, एक आदत है। यह जीवन जीने का ढंग है। जिस प्रकार मनुष्य गंदगी में नहीं रह सकता, उसी भाँति सभ्य मनुष्य बिना अनुशासन के नहीं रह सकता। आज सम्यता और असभ्यता की पहचान ही यही रह गई है-अनुशासन यही कारण है कि बड़े-बड़े विद्यालय अनुशासन को सर्वोच्च स्थान देते हैं। वे विद्यार्थियों की वेशभूषा, बोलचाल नियमितता आदि का विशेष ध्यान रखते हैं। वे पुस्तकीय विद्या की बजाय सुशिक्षित व्यक्तित्व का सृजन करते हैं।