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पाठ का प्रतिपादय
'शिरीप के फूल' शीर्षक निबंध कल्पलता से उद्धृत है। इसमें लेखक ने आँधी, लू और गरमी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौंदर्य विखेर रहे शिरीप के माध्यम से मनुष्य की अजेय जिजीविषा और तुमुल कोलाहल कलह के बीच धैर्यपूर्वक, लोक के साथ चिंतारत, कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित किया है। ऐसी भावधारा में बहते हुए उसे देह-वल के ऊपर आत्मवल का महत्व सिद्ध करने वाली इतिहास विभूति गांधी जी की याद हो आती है तो वह गांधीवादी मूल्यों के अभाव की पीड़ा से
भी कसमसा उठता है।
निबंध की शुरुआत में लेखक शिरीष पुष्प की कोमल सुंदरता के जाल बुनता है. फिर उसे भेदकर उसके इतिहास में और फिर उसके जरिये मध्यकाल के सांस्कृतिक इतिहास में पैठता है, फिर तत्कालीन जीवन व सामती वैभव-विलास को सावधानी से उकेरते हुए उसका खोखलापन भी उजागर करता है। वह अशोक के फूल के भूल जाने की तरह ही शिरीष को नजरअंदाज किए जाने की साहित्यिक घटना से आहत है। इसी में उसे सच्चे कवि का तत्व- दर्शन भी होता है।
उसका मानना है कि योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्णता एक साथ उपलब्ध होना सत्कवि होने की एकमात्र शर्त है। ऐसा कवि ही समस्त प्राकृतिक और मानवीय वैभव में रमकर भी चुकता नहीं और निरंतर आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा देता है।
लेखक शिरीष के पेड़ों के समूह के बीच बैठकर लेख लिख रहा है। जेठ की गरमी से धरती जल रही है। ऐसे समय में शिरीप ऊपर से नीचे तक फूलों से लदा है। कम ही फूल गरमी में खिलते हैं। अमलतास केवल पंद्रह-वीस दिन के लिए फूलता है। कबीरदास को इस तरह दस दिन फूल खिलना पसंद नहीं है। शिरीष में फूल लंबे समय तक रहते हैं। वे वसंत में खिलते हैं तथा भादो माह तक फूलते रहते हैं। भीषण गरमी और लू में यही शिरीष की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र पढ़ाता रहता है। शिरीप के वृक्ष बड़े व छायादार होते हैं। पुराने रस मंगल-जनक वृक्षों में शिरीष को भी लगाया करते थे। वात्स्यायन कहते हैं कि बगीचे के घने छायादार वृक्षों में ही झूला लगाना चाहिए। पुराने कवि बवूल के पेड़ में झूला डालने के लिए कहते हैं, परंतु लेखक शिरीष को भी उपयुक्त मानता है। शिरीष की डालें कुछ कमजोर होती हैं, परंतु उस पर झूलनेवालियों का वजन भी कम ही होता है। शिरीष के फूल को संस्कृत साहित्य में कोमल माना जाता है।
कालिदास ने लिखा है कि शिरीप के फूल केवल भौरों के पैरों का दबाव
सहन कर सकते हैं. पक्षियों के पैरों का नहीं। इसके आधार पर भी इसके फूलों को कोमल माना जाने लगा, पर इसके फूलों की मजबूती नहीं देखते। वे तभी स्थान छोड़ते हैं, जब उन्हें धकिया दिया जाता है।
लेखक को उन नेताओं की याद आती है जो समय को नहीं पहचानते तथा धक्का देने पर ही पद को छोड़ते हैं। लेखक सोचता है कि पुराने की यह अधिकार लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती वृद्धावस्था व मृत्यु ये जगत के सत्य हैं। शिरीप के फूलों को भी समझना चाहिए कि झड़ना निश्चित है, परंतु सुनता कोई नहीं। मृत्यु का देवता निरंतर कोड़े चला रहा है। उसमें कमजोर समाप्त हो जाते हैं। प्राणधारा व काल के बीच संघर्ष चल रहा है। हिलने-डुलने वाले कुछ समय के लिए बच सकते हैं। झड़ते ही मृत्यु निश्चित है।
लेखक को शिरीष की तरह लगता है। यह हर स्थिति में ठीक रहता है। भयंकर गरमी में भी यह अपने लिए जीवन रस ढूँढ़ लेता है। एक वनस्पतिशास्त्री ने बताया कि यह वायुमंडल से अपना रस खींचता है तभी तो भयंकर लू में ऐसे सुकुमार केसर उगा सका। अवधूतों के मुँह से भी ससार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं।
कवीर व कालिदास उसी श्रेणी के हैं। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जिससे लेखा-जोखा मिलता है, वह कवि नहीं है। कर्णाटराज की प्रिया विज्जिका देवी ने ब्रहमा, वाल्मीकि व व्यास को ही कवि माना लेखक का मानना है कि जिसे कवि बनना है, उसका फक्कड़ होना बहुत जरूरी है। कालिदास अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञ, विदग्ध प्रेमी थे। उनका एक-एक श्लोक मुग्ध करने वाला है। शकुंतला का वर्णन कालिदास ने किया। राजा दुष्यंत ने भी शंकुतला का चित्र वनाया, परंतु उन्हें हर वार उसमें कमी महसूस होती थी। काफी देर बाद उन्हें समझ आया कि शकुंतला के कानों में शिरीष का फूल लगाना भूल गए हैं। कालिदास सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके भीतर पहुँचने में समर्थ थे। वे सुख दुख दोनों में भाव रस खींच लिया करते थे। ऐसी प्रकृति सुमित्रानंदन पंत व रवींद्रनाथ में भी थी। शिरीप पक्के अवधूत की तरह लेखक के मन में भावों की तरंगें उठा देता है। वह आग उगलती धूप में भी सरस बना रहता है। आज देश में मारकाट, आगजनी, पक्षपाद आदि का बवंडर है। ऐसे में क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। गांधी जी भी रह सके थे। ऐसा तभी संभव हुआ है जब वे वायुमंडल से रस खींचकर कोमल व कठोर बने। लेखक जब शिरीष की ओर देखता है तो हुक उठती है हाय, वह अवधूत आज कहाँ है।
यह डायरी डच भाषा में 1947 ई० में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद यह द डायरी ऑफ ए यंग गर्स" शीर्षक से 1952 ई० में प्रकाशित हुई। यह डायरी इतिहास के एक सबसे आतंकप्रद और दर्दनाक अध्याय के साक्षात अनुभव का बयान करती है। हम यहाँ उस भयावह दौर को किसी इतिहासकार की निगाह से नहीं, बल्कि सीधे भोकता की निगाह से देखते हैं। यह भोकता ऐसा है जिसकी समझ और संवेदना बहुत गहरी तो है ही, उम्र के साथ आने वाले परिवर्तना से पूरी तरह अछूती भी है।
इस पुस्तक की भूमिका में लिखा गया है इस डायरी में भय, आतंक, भूख, मानवीय संवेदनाएँ, प्रेम, घृणा, बढ़ती उम्र की तकलीफे, हवाई हमले का डर, पकड़े जाने का लगातार डर, तेरह साल की उम्र के सपने कल्पनाएं, बाहरी दुनिया से अलग-थलग पड़ जाने की पीड़ा, मानसिक और शारीरिक जरुरत, हँसी-मजाक, युद्ध की पीड़ा, अकेलापन सभी कुछ है। यह डायरी यहूदियों पर ढाए गए जुल्मों का एक जीवंत दस्तावेज है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय हॉर्लंग के यहूदी परिवारों को जर्मनी के प्रभाव के कारण अकल्पनीय यातनाऐ सहनी पड़ी थीं। उन्होंने गुप्त तहखानों में छिपकर जीवन रक्षा की।