प्रसंग. प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह, भाग-2' में संकलित 'रुवाइयाँ' से उद्धृत है। इसके रचयिता उर्दू-फ़ारसी के प्रमुख शायर फिराक गोरखपुरी हैं। इसमें रक्षाबंधन पर्व का वर्णन प्रकृति के माध्यम से किया गया है।

 रक्षाबंधन की सुवह रस की पुतली छायी है घटा गगन की हलकी-हलकी


विजली की तरह चमक रहे है लच्छे भाई के है बाँधती चमकती राखी


प्रसंग. प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह, भाग-2' में संकलित 'रुवाइयाँ' से उद्धृत है। इसके रचयिता उर्दू-फ़ारसी के प्रमुख शायर फिराक गोरखपुरी हैं। इसमें रक्षाबंधन पर्व का वर्णन प्रकृति के माध्यम से किया गया है।


व्याख्या- कवि कहता है कि रक्षाबंधन की सुबह आनंद व मिठास की सौगात है। यह दिन मीठे बंधन का दिन है। सावन का महीना है। आकाश में काले काले वादलों की हल्की घटाएँ छाई हुई हैं। इन वादलों में विजली चमक रही है। इसी तरह राखी के लच्छे भी बिजली की तरह चमकते हैं। वहिन अपने भाई की कलाई पर चमकीली राखी बाँधती है।