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पाठ का प्रतिपादय
नमक' कहानी भारत-पाक विभाजन के बाद सरहद के दोनों तरफ के विस्थापित पुनर्वासित जनों के दिलों को टटोलती एक मार्मिक कहानी है। दिलों को टटोलने की इस कोशिश में अपने पराये देस परदेस की कई प्रचलित धारणाओं पर सवाल खड़े किए गए हैं। विस्थापित होकर आई सिख वीवी आज भी लाहौर को ही अपना वतन मानती हैं और सौगात के तौर पर वहाँ का नमक लाए जाने की फ़रमाइश करती है। कस्टम अधिकारी नमक ले जाने की इजाजत देते हुए देहली को अपना वतन बताता है। इसी तरह भारतीय कस्टम अधिकारी सुनील दास गुप्ता का कहना है, मेरा वतन ढाका है। राष्ट्र राज्यों की नयी सीमा रेखाएँ खींची जा चुकी हैं और मजहवी आधार पर लोग इन रेखाओं के इधर-उधर अपनी जगहें मुकईर कर चुके हैं इसके बावजूद जमीन पर खींची गई रेखाएँ उनके अंतर्मन तक नहीं पहुँच पाई है। एक अनचाही अप्रीतिकर बाहरी वाध्यता ने उन्हें अपने-अपने जन्म स्थानों से विस्थापित तो कर दिया है, पर वह उनके दिलों पर कब्जा नहीं कर पाई है। नमक जैसी छोटी-सी चीज का सफ़र पहचान के इस मार्मिक पहलू को परत दर परत उघाड़ देता है। यह पहलू जब तक सरहद के आर पार जीवित है, तब तक यह उम्मीद की जा सकती है कि राजनीतिक सरहदे एक दिन वेमानी हो जाएँगी।
लाहौर के कस्टम अधिकारी का यह कथन बहुत सारगर्भित है. उनको यह नमक देते वक्त मेरी तरफ से कहिएगा कि लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा, तो बाकी सब रफ्ता-रफ्ता ठीक हो जाएगा।" सफ़िया अपने पड़ोसी सिख परिवार के यहाँ कीर्तन में गई थी। वहाँ एक सिख बीवी को देखकर वह हैरान हो गई क्योंकि उसकी आँखें, भारी भरकम जिस्म, वस्त आदि सव सफिया की माँ की तरह थे। सफिया की प्रेम दृष्टि से प्रभावित होकर सिख बीवी ने उसके बारे में अपनी बहू से पूछा। जब उसे पता चला कि वह सुवह लाहौर जा रही है तो वह लेखिका के पास आकर लाहौर की बातें करने लगी। उसने बताया कि वह विभाजन के बाद भारत आई थी। उनका वतन तो जी लाहौर ही है। कीर्तन समाप्त होने के समय सफिया ने लाहौर से कुछ लाने के लिए पूछा। उसने हिचकिचाहट के साथ लाहौरी नमक लाने के लिए कहा।
वह लाहौर में पंद्रह दिन रुकी। उसके भाइयों ने खूब खातिरदारी की। मिलने वाले अनेक उपहार लेकर आए। उसके सामने सेर भर लाहौरी नमक की पूड़िया ले जाने की समस्या थी। पुलिस अफसर भाई ने इसे गैर-कानूनी बताया तथा व्यंग्य किया कि भारत के हिस्से में अधिक नमक आया था।
लेखिका इस पर झुंझला गई तथा नमक ले जाने की जिद की। भाई ने कस्टम की जाँच का हवाला दिया तथा वेइज्जती होने का डर दिखाया। लेखिका उसे चोरी से नहीं ले जाना चाहती थी। वह प्रेम की चीज को शालीनता से ले जाना चाहती थी, परंतु भाई ने कानून की सख्ती के विषय में बताया। अंत में वह रोने लगी तथा भाई सिर हिलाकर चुप हो गया।
अगले दिन दो बजे दिन को उसे रवाना होना था। उसने सारी रात पैकिंग की सारा सामान सूटकेस व विस्तरवंद में आ गया। अब कीनू की टोकरी तथा नमक की पुडिया ही शेष रह गई थीं। गुस्सा उतरने पर भावना के स्थान पर बुद्धि धीरे-धीरे हावी हो रही थी। उसने कीनुओं के ढेर के नीचे नमक की पोटली छिपा दी। आते समय उसने देखा था कि भारत से केले जा रहे थे तथा पाकिस्तान से कीनू आ रहे थे। कोई जाँच नहीं हो रही थी। इस तरह नमक सुरक्षित पहुँच जाएगा। फिर वह सो गई। वह वहाँ के सौंदर्य, माहौल व सगे-संबंधियों के बारे में स्वप्न देख रही थी। यहाँ उसके तीन सगे भाई, चाहने वाले दोस्त, नन्हे नन्हे भतीजे-भतीजियाँ सव याद आ रहे थे। कल वह लाहौर से जा रही थी। शायद फिर वह न आ सके। फिर उसे इकवाल का मकबरा, लाहौर का किला, सूरज की डूवती किरणें आदि दिखाई दीं।
अचानक उसकी आँखें खुल गई क्योंकि उसका हाथ कीनुओं की टोकरी पर जा पड़ा था। उसके दोस्त ने कहा था कि यह हिदुस्तान व पाकिस्तान की एकता का मेवा है। वह फस्ट क्लास के वेटिंग रूम में बैठी थी। उसके भाई ने उसे दिल्ली तक का टिकट खरीद दिया था। वह सोच रही थी कि आस-पास टहल रहे लोगों में सिर्फ वही जानती थी कि टोकरी की तह में कीनुओं के नीचे नमक की पुड़िया है।
जब सामान कस्टम जाँच के लिए जाने लगा तो उसने फैसला किया कि मुहव्वत का यह तोहफा वह चोरी से नहीं ले जाएगी। उसने जल्दी से पुड़िया निकाली और हैंडबैग में रख ली। जब सामान जाँच के बाद रेल की तरफ़ चला तो वह एक कस्टम अफ़सर की तरफ बढ़ी। वह लंबा, पतला, खिचड़ी वालों वाला था। उसने उसके वतन के बारे में पूछा। उसने हैरान होकर अपना वतन दिल्ली बताया। लेखिका ने हैंडवैग मेज पर रख दिया नमक की पुड़िया निकालकर उसके सामने रख दी तथा उसे सब कुछ बता दिया। सारी बातें सुनकर उसने पुड़िया को अच्छी तरह लपेटकर स्वयं सफ़िया के वैग में रख दिया तथा कहा कि मुहब्बत तो कस्टम से इस तरह गुजर जाती है कि कानून हैरान रह जाता है। उसने जामा मस्जिद की सीढ़ियों को सलाम देने को कहा तथा सिख बीवी को भी संदेश देने को कहा "लाहौर अभी तक उनका वतन
है और देहली मेरा, तो वाकी सब रफ्ता-रफ़्ता ठीक हो जाएगा।" सफ़िया कस्टम के जंगले से निकलकर दूसरे प्लेटफॉर्म पर आ गई। यहाँ सभी ने उसे भावपूर्ण विदाई दी। अटारी में भारतीय पुलिस रेल में चढ़ी। एक जैसी भाषा, सूरत, वस्त्र, लहजा अंदाज व गालियों आदि के कारण लाहौर खत्म होने व अमृतसर शुरू होने का पता नहीं चला। अमृतसर में कस्टम की जाँच शुरू हुई तो वह कस्टम अफ़सर के पास पहुँची तथा अपने पास नमक होने की पूरी बात कह सुनाई।
अफ़सर ने उसे साथ चलने को कहा। एक कमरे में जाकर उसने उसे बैठाया तथा दो चाय लाने का ऑर्डर दिया। उसने मेज की दराज से एक किताब निकाली। उसके पहले पन्ने पर लिखा था- "शमसुल इसलाम की तरफ से सुनील दास गुप्ता को प्यार के
साथ, ढाका 1946 ।"
लेखिका के पूछने पर उसने अपने वतन का नाम ढाका बताया। विभाजन के समय वह ढाका में था। जिस दिन वह भारत आ रहा था, उससे एक वर्ष पहले उसकी सालगिरह पर उसके दोस्त ने यह किताब दी थी। फिर वे कलकत्ता में रहकर पढ़े तथा नौकरी करने लगे। उन्होंने बताया कि हम वतन आते जाते थे। सफ़िया वतन की बात पर हैरान थी। कस्टम अफ़सर ने कहा कि अब वहाँ भी कस्टम हो गया। उसने अपने वतन की डाभ की प्रशंसा की चलते वक्त उसने पुड़िया सफ़िया के बैग में रख दी 1 तथा खुद उस बैग को उठाकर आगे-आगे चलने लगा। जब सफ़िया अमृतसर के पुल पर चढ़ रही थी तब वह पुल की सबसे निचली सीढ़ी के पास सिर झुकाए चुपचाप खड़ा था। लेखिका सोच रही थी कि किसका वतन कहाँ है? वह जो इस कस्टम के इस तरफ़ है या उस तरफ़ ?