नहला के छलके छलके निर्मल जल से उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके किस प्यार से देखता है वच्चा मुँह को जब घुटनियों में ले के है पिन्हाती कपड़े।
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नहला के छलके छलके निर्मल जल से उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके किस प्यार से देखता है वच्चा मुँह को जब घुटनियों में ले के है पिन्हाती कपड़े।
प्रसंग प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह, भाग-2' में रुवाइयाँ से है। इसके रचयिता फारसी के प्रमुख शायर फिराक गोरखपुरी हैं। इसमें माँ द्वारा बच्चे के नहाने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है।
व्याख्या शायर कहता है कि माँ अपने बच्चे को स्वच्छ जल से नहलाती है। उसके उलझे हुए बालों से पानी छलक रहा है। माँ उसके वालों में कधी कर रही है जब वह उसे अपने घुटनों में लेकर कपड़ेपहनाती है तब बच्चा आईने में मुँह को निहारता रहता है।
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