रुबाइयां और ग़ज़ल,आंगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी हाथों पे झुलाती हैं उसे गोद भरी रह-रह के हवा में जो लोका देती है गूँज उठती हैं। खिलखिलाते बच्चे की हँसी ।
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(क) रुबाइयाँ
आंगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी हाथों पे झुलाती हैं उसे गोद भरी रह-रह के हवा में जो लोका देती है गूँज उठती हैं। खिलखिलाते बच्चे की हँसी ।
प्रसंग प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह, भाग-2' में संकलित रुवाइयाँ' से उधृत है। इसके रचयिता उर्दू-फ़ारसी के प्रमुख शायर फिराक गोरखपुरी हैं। इस रुवाई में कवि ने माँ के स्रेह का वर्णन किया है।
व्याख्या-शायर कहता है कि एक माँ चाँद के टुकड़े अर्थात अपने बेटे को अपने घर के आँगन में लिए खड़ी है। वहीं अपने चाँद के टुकड़े को अपने हाथों पर झूलाने लगती है। बीच-बीच में वह उसे हवा में उछाल भी देती है। इस प्रक्रिया से बच्चा प्रसन्न हो उठता है तथा बच्चे की खिलखिलाहट-भरी हँसी गूँजने लगती है।
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